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Thursday, November 18, 2010

कखन हरब दुख मोर हे भोलानाथ

अमलेन्दु शेखर पाठक, दरभंगा। जिस महाकवि विद्यापति ने सर्वप्रथम जनभाषा को लेखन का माध्यम बना कर मिथिला-मैथिली को देश-विदेश में खास पहचान दिलाई, आज उनसे 'जन' दूर हो चला है। उनके संगीत से वर्तमान पीढ़ी का नाता टूट गया है। चाहे वह महाकवि के नाम पर सालों भर मनाया जाने वाला स्मृति पर्व समारोह हो अथवा गांव-घर में पर्व-त्योहारों व विभिन्न संस्कारों का अवसर, विद्यापति-संगीत दरकिनार हो रहा है। जिन मैथिल ललनाओं ने महाकवि के गीतों को अपने कंठ में सैकड़ों साल तक जीवित रखा, उन्होंने भी इस ओर से मुंह फेर लिया है। महाकवि विद्यापति भले ही विश्वकवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर के काव्य-गुरु हों, लेकिन 'रवीन्द्र संगीत' की भांति 'विद्यापति-संगीत' प्रभावी नहीं हो सका। अधिकांश स्मृति पर्व समारोह आयोजित करने वाले भी विद्यापति-संगीत की खानापूरी करने भर में रुचि रखते हैं। जिस तरह उद्घाटन के बाद प्राय: उस दीये को किनारे में डाल कर छोड़ दिया जाता है उसी तरह विद्यापति की मूर्ति व तस्वीर पर माल्यार्पण व श्रद्धांजलि भाषणों में यशोगान कर उन्हें भुला दिया जाता है। इसके बाद विद्यापति-संगीत की जगह फूहड़ गीतों का ज्वार परंपरा को निगलने में जुट जाता है। आमजनों की रुचि भी इसमें काफी कम रही है। आयोजनों के मौके पर उस दिन अंगुली पर गिनने लायक दर्शक-श्रोता होते हैं, जिस दिन विद्यापति-संगीत की प्रमुखता होती है, जबकि रंगारंग कार्यक्रम में जन-समुद्र उमड़ पड़ता है। कुल मिलाकर वर्तमान परिस्थिति ऐसी हो चली है कि महाकवि की जिस रचना को गाकर शिव-भक्त अपनी पीड़ा की अभिव्यक्ति करते हैं, वह विद्यापति के दर्द को भी बयां करता प्रतीत होता है- 'कखन हरब दुख मोर हे भोलानाथ।' कहते हैं कि ऐसे गीतों की रचना महाकवि ने भाव-विह्वल होकर तब की, जब उनकी भक्ति से प्रसन्न भगवान शिव 'उगना' रूप में उनके दास बने महादेव अंतध्र्यान हो गये। इस बारे में साहित्य अकादमी दिल्ली के पूर्व प्रतिनिधि डा. रामदेव झा कहते हैं कि परंपरा के प्रति प्रेम में कमी, पुरानी पीढ़ी की महिलाओं के गुजर जाने व नई पीढ़ी का गांव से नाता टूटने के कारण विद्यापति संगीत संकट के दौर से गुजर रहा है। विद्यापति सेवा संस्थान के कार्यकारी अध्यक्ष डा. बुचरू पासवान कहते हैं कि नई पीढ़ी के रुझान का भी आयोजकों को ख्याल रखना पड़ता है।
ऐसा नहीं है कि पारंपरिक गीतों के संरक्षण की चिंता आयोजकों को नहीं होती। इस दिशा में प्रयास निरंतर जारी है। मैथिली मंच के प्रसिद्ध उद्घोषक एवं मैथिली अकादमी पटना के अध्यक्ष कमलाकांत झा कहते हैं कि फूहड़ गीतों से भाषा को हो रही क्षति पर संस्थाएं गंभीर हुई हैं और इस पर विराम लगाने की दिशा में वे सक्रिय हुई हैं जो शुभ-संकेत है। कलाकार ममता ठाकुर कहती हैं कि श्रोता पारंपरिक व विद्यापति गीत भी पूरे मनोयोग से सुनते हैं, बशर्ते गायक में उस गीत को सही रूप में गाने की क्षमता हो।

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