मधुबनी। सनत्यकुमार संहिता में उल्लेख है कि वामन रूपधारी भगवान विष्णु ने कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी से अमावश्या तक तीन दिनों में दैत्यराज बलि से संपूर्ण लोक छिन कर पाताल जाने पर विवश कर दिया था। सर्वस्व ले लेने के बाद श्री विष्णु ने बलि से इच्छित वर मांगने को कहा। बलि ने जनकल्याण हित में वर मांगते हुए कहा कि भगवन आपने मुझसे तीन दिनों में तीनों लोक ग्रहण कर लिए हैं। इसलिए मेरी इच्छा है कि उपर्युक्त तीन दिनों में जो प्राणी मृत्यु के देवता यमराज के उद्देश्य से दीपदान करे उसे यम की यातना न भोगनी पड़ी और उसका घर कभी भी लक्ष्मी विहीन न हो। कहा जाता है कि तभी से कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी से अमावश्या तक दीपोत्सव मनाने, यम निमित्त दीपदान करने का प्रचलन शुरू हुआ। तीसरे दिन दीपावली होती है। दीपावली के दिन धनी से लेकर गरीबों के घरों में दीपोत्सव मनाया जाता है।
धनतेरस के दिन यमराज के निमित दीपदान कर दीपावली का शुभारंभ होता है। दूसरा दिन नरक चतुर्दशी या रूप चौदस के रूप में मनाये जाने की परंपरा है। इसे छोटी दीवाली भी कहा जाता है। नरक व पापों से मुक्ति के लिए प्रदोषकाल में चौमुख दीप जलाना चाहिए। पुराणों के अनुसार इसी दिन भगवान श्रीकृष्ण ने नरकासुर का संहार कर संसार को भयमुक्त किया था। इस विजय की स्मृति में यह पर्व मनाया जाता है। दीपोत्सव का तीसरा दिन दीपावली ने नाम से ख्यात है। इस पर्व को लेकर स्कन्दपुराण, भविष्य पुराण व पद्मपुराण में अलग-अलगद व्याख्यान है। इस दिन महालक्ष्मी, श्रीगणेश, कलश सहित षोडसमातृका पूजन का विधान है। इसके तहत महाकाली का दावात, महासरस्वती का कलम-बही व कुबेर का तुला रूप में सविधि पूजा की जाती है। घरों के कोने-कोने में दीप जलाकर लक्ष्मी के आगमन की कामना लोग करते हैं।
यह विश्वास है कि दीपावली की रात्रि में विष्णुप्रिया लक्ष्मी सदगृहस्थों के घरों में विचरण कर यह देखती हैं कि हमारे निवास योग्य घर कौन-कौन से है? और जहां कहीं उन्हें अपने निवास की अनुकूलता दिखाई देती है वहीं निवास करती हैं। मिथिला में जहां सायंकाल दीप जलाकर भगवती लक्ष्मी की लोग आगवानी करते हैं वहीं रात के अंतिम पहर में डगरा (सूप) को शाम में उक में प्रयुक्त की गई संठी से पीटकर गृहणियां अनधन लक्ष्मी घर आऊ-दरिद्रा बाहर जो' कहती हुए लक्ष्मी के घर निवास करने की कामना करती हैं।
धनतेरस के दिन यमराज के निमित दीपदान कर दीपावली का शुभारंभ होता है। दूसरा दिन नरक चतुर्दशी या रूप चौदस के रूप में मनाये जाने की परंपरा है। इसे छोटी दीवाली भी कहा जाता है। नरक व पापों से मुक्ति के लिए प्रदोषकाल में चौमुख दीप जलाना चाहिए। पुराणों के अनुसार इसी दिन भगवान श्रीकृष्ण ने नरकासुर का संहार कर संसार को भयमुक्त किया था। इस विजय की स्मृति में यह पर्व मनाया जाता है। दीपोत्सव का तीसरा दिन दीपावली ने नाम से ख्यात है। इस पर्व को लेकर स्कन्दपुराण, भविष्य पुराण व पद्मपुराण में अलग-अलगद व्याख्यान है। इस दिन महालक्ष्मी, श्रीगणेश, कलश सहित षोडसमातृका पूजन का विधान है। इसके तहत महाकाली का दावात, महासरस्वती का कलम-बही व कुबेर का तुला रूप में सविधि पूजा की जाती है। घरों के कोने-कोने में दीप जलाकर लक्ष्मी के आगमन की कामना लोग करते हैं।
यह विश्वास है कि दीपावली की रात्रि में विष्णुप्रिया लक्ष्मी सदगृहस्थों के घरों में विचरण कर यह देखती हैं कि हमारे निवास योग्य घर कौन-कौन से है? और जहां कहीं उन्हें अपने निवास की अनुकूलता दिखाई देती है वहीं निवास करती हैं। मिथिला में जहां सायंकाल दीप जलाकर भगवती लक्ष्मी की लोग आगवानी करते हैं वहीं रात के अंतिम पहर में डगरा (सूप) को शाम में उक में प्रयुक्त की गई संठी से पीटकर गृहणियां अनधन लक्ष्मी घर आऊ-दरिद्रा बाहर जो' कहती हुए लक्ष्मी के घर निवास करने की कामना करती हैं।
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