सिंहवाड़ा। मिट्टी के दीये में घी से जलती बत्ती की टिमटिमाती रौशनी का अक्स घर की दरो दीवारों पर पड़ता था तब दीपावली की रौनक देखने लायक होती थी। आज के आधुनिक युग में घर की जगह फ्लैट व दीये की जगह चाइनीज बल्व ने रौशनी बिखेरने की जिम्मेवारी ले ली हैं। पुरानी परंपरायें मानो खत्म होती जा रही है। शायद इसलिये कुम्हारों के घर भी केरोसिन के दीये जलते हैं। प्रतिस्पर्धा की इस दौर में बाजार में खुद को कायम रखने के कुछ कुम्हारों ने मिट्टी के रंग बिरंगे डिजाइन के दीये बिक्री हेतु उतारे हैं। हाथ की जगह अलग-अलग की तरह की डाई में तैयार थे दीये महानगरों से विभिन्न बाजारों में पहुंचा है। कहने को तो कई स्थानों पर कुम्हार टोली है पर ये लोग भी अब परंपरागत दीप का निर्माण नहीं करना चाहते बल्कि बाहर के माल बेचने में जुटे हैं। वहीं कुम्हारों का कहना है कि उत्कृष्ट कलाकृति के लिए चर्चित सिमरी, बस्तवाड़ा, बिरदीपुर, भरवाड़ा, सिंहवाड़ा, कटासा, रामपुरा के निर्माणकर्ता के यहां पुराने दीये की डिमांड काफी कम है। पुराने मिट्टी के दीप जहां 250 रुपये में एक हजार मिलते हैं। उससे कम कीमत में डिजाइनदार दीये बाजार में बिक रहे हैं। वहीं फ्लैट में रहने वाले का कहना है कि दीप होया या बल्व मतलब रौशनी से है। दीपों से घर आंगन का श्रृंगार तो होता है पर रिस्क ज्यादा है।
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Friday, November 5, 2010
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